raamacharit maanas khand-28: भयंकर युद्ध जारी है. उधर से रावण ललकार रहा है और इधर से अंगद और हनुमान. राक्षस और रीछ-वानर अपने-अपने स्वामी की दुहाई देकर लड़ रहे हैं. ब्रह्मा आदि देवता और अनेकों सिद्ध तथा मुनि विमानों पर चढ़े हुए आकाश से युद्ध देख रहे हैं. दोनों ओर के योद्धा रण रस में मतवाले हो रहे हैं. वानरों को श्री रामजी का बल है, इससे वे जयशील हैं (जीत रहे हैं). एक-दूसरे से भिड़ते और ललकारते हैं और एक-दूसरे को मसल-मसलकर पृथ्वी पर डाल देते हैं. वे मारते, काटते, पकड़ते और पछाड़ देते हैं और सिर तोड़कर उन्हीं सिरों से दूसरों को मारते हैं. पेट फाड़ते हैं, भुजाएं उखाड़ते हैं और योद्धाओं को पैर पकड़कर पृथ्वी पर पटक देते हैं.

राक्षस योद्धाओं को भालू पृथ्वी में गाड़ देते हैं और ऊपर से बहुत सी बालू डाल देते हैं. युद्ध में शत्रुओं से विरुद्ध हुए वीर वानर ऐसे दिखाई पड़ते हैं मानो बहुत से क्रोधित काल हों. क्रोधित हुए काल के समान वे वानर खून बहते हुए शरीरों से शोभित हो रहे हैं. वे बलवान वीर राक्षसों की सेना के योद्धाओं को मसलते और मेघ की तरह गरजते हैं. डांटकर चपेटों से मारते, दांतों से काटकर लातों से पीस डालते हैं. वानर-भालू चिग्घाड़ते और ऐसा छल-बल करते हैं, जिससे दुष्ट राक्षस नष्ट हो जाएं. वे राक्षसों के गाल पकड़कर फाड़ डालते हैं, छाती चीर डालते हैं और उनकी अंतड़ियां निकालकर गले में डाल लेते हैं.
वे वानर ऐसे दिख पड़ते हैं मानो प्रह्लाद के स्वामी श्री नरसिंह भगवान् अनेकों शरीर धारण करके युद्ध के मैदान में क्रीड़ा कर रहे हों. पकड़ो, मारो, काटो, पछाड़ो आदि घोर शब्द आकाश और पृथ्वी में भर (छा) गए हैं. श्री रामचंद्रजी की जय हो, जो सचमुच तृण से वज्र और वज्र से तृण कर देते हैं (निर्बल को सबल और सबल को निर्बल कर देते हैं). अपनी सेना को विचलित होते हुए देखा, तब बीस भुजाओं में दस धनुष लेकर रावण रथ पर चढ़कर गर्व करके ‘लौटो, लौटो’ कहता हुआ चला. रावण अत्यंत क्रोधित होकर दौड़ा. वानर हुंकार करते हुए (लड़ने के लिए) उसके सामने चले. उन्होंने हाथों में वृक्ष, पत्थर और पहाड़ लेकर रावण पर एक ही साथ डाले. पर्वत उसके वज्रतुल्य शरीर में लगते ही तुरंत टुकड़े-टुकड़े होकर फूट जाते हैं. अत्यंत क्रोधी रणोन्मत्त रावण रथ रोककर अचल खड़ा रहा, अपने स्थान से जरा भी नहीं हिला.
उसे बहुत ही क्रोध हुआ. वह इधर-उधर झपटकर और डपटकर वानर योद्धाओं को मसलने लगा. अनेकों वानर-भालू ‘हे अंगद! हे हनुमान्! रक्षा करो, रक्षा करो’ पुकारते हुए भाग चले. हे रघुवीर! हे गोसाईं! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए. यह दुष्ट काल की भांति हमें खा रहा है. उसने देखा कि सब वानर भाग छूटे, तब (रावण ने) दसों धनुषों पर बाण संधान किए. उसने धनुष पर सन्धान करके बाणों के समूह छोड़े. वे बाण सर्प की तरह उड़कर जा लगते थे.
पृथ्वी-आकाश और दिशा-विदिशा सर्वत्र बाण भर रहे हैं. वानर भागें तो कहां? अत्यंत कोलाहल मच गया. वानर-भालुओं की सेना व्याकुल होकर आर्त्त पुकार करने लगी- हे रघुवीर! हे करुणासागर! हे पीड़ितों के बन्धु! हे सेवकों की रक्षा करके उनके दुःख हरने वाले हरि! अपनी सेना को व्याकुल देखकर कमर में तरकस कसकर और हाथ में धनुष लेकर श्री रघुनाथजी के चरणों पर मस्तक नवाकर लक्ष्मणजी क्रोधित होकर चले. लक्ष्मणजी ने पास जाकर कहा- अरे दुष्ट! वानर भालुओं को क्या मार रहा है? मुझे देख, मैं तेरा काल हूं. रावण ने कहा- अरे मेरे पुत्र के घातक! मैं तुझी को ढूंढ रहा था. आज तुझे मारकर (अपनी) छाती ठंडी करूंगा. ऐसा कहकर उसने प्रचण्ड बाण छोड़े. लक्ष्मणजी ने सबके सैकड़ों टुकड़े कर डाले. रावण ने करोड़ों अस्त्र-शस्त्र चलाए. लक्ष्मणजी ने उनको तिल के बराबर करके काटकर हटा दिया.
फिर अपने बाणों से उस पर प्रहार किया और उसके रथ को तोड़कर सारथी को मार डाला. रावण के दसों मस्तकों में सौ-सौ बाण मारे. वे सिरों में ऐसे पैठ गए मानो पहाड़ के शिखरों में सर्प प्रवेश कर रहे हों. फिर सौ बाण उसकी छाती में मारे. वह पृथ्वी पर गिर पड़ा, उसे कुछ भी होश न रहा. फिर मूर्च्छा छूटने पर वह प्रबल रावण उठा और उसने वह शक्ति चलाई जो ब्रह्माजी ने उसे दी थी. वह ब्रह्मा की दी हुई प्रचण्ड शक्ति लक्ष्मणजी की ठीक छाती में लगी. वीर लक्ष्मणजी व्याकुल होकर गिर पड़े. तब रावण उन्हें उठाने लगा, पर उसके अतुलित बल की महिमा यों ही रह गई, व्यर्थ हो गई, वह उन्हें उठा न सका. जिनके एक ही सिर पर ब्रह्मांड रूपी भवन धूल के एक कण के समान विराजता है, उन्हें मूर्ख रावण उठाना चाहता है! वह तीनों भुवनों के स्वामी लक्ष्मणजी को नहीं जानता.
यह देखकर पवनपुत्र हनुमानजी कठोर वचन बोलते हुए दौड़े. हनुमानजी के आते ही रावण ने उन पर अत्यंत भयंकर घूंसे का प्रहार किया. हनुमानजी घुटने टेककर रह गए, पृथ्वी पर गिरे नहीं और फिर क्रोध से भरे हुए संभलकर उठे. हनुमानजी ने रावण को एक घूंसा मारा. वह ऐसा गिर पड़ा जैसे वज्र की मार से पर्वत गिरा हो. मूर्च्छा भंग होने पर फिर वह जागा और हनुमानजी के बड़े भारी बल को सराहने लगा. हनुमानजी ने कहा- मेरे पौरुष को धिक्कार है, धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है, जो हे देवद्रोही! तू अब भी जीता रह गया.